Thursday 29 November, 2007

आज नहीं मैं कल आऊँगी


धन्यवाद कहने आऊँगी

आज नहीं मैं कल आऊँगी

धीरे-धीरे पथ पर चल कर

पग पग पर तेरा कर धर कर

रोम-रोम में तुझ को भर कर

कण-कण में तुझको ही लख कर

पूर्ण समर्पण भाव हृदय धर

तुमसे मैं मिलने आऊँगी

धन्यवाद कहने आऊँगी

तुमको याद किया है मैंने

क्षण-क्षण नमन किया है मैंने

घूम घूम परिक्रमा की है

रो-रो कर पात्र भरा है मैं ने

अर्घ्य दान करने आऊँगी

आज नहीं मैं कल आऊँगी

4 comments:

बालकिशन said...

आपके दर्शन और अनुभव, जो आप अपनी कविताओं के माध्यम से हमे देती है, बहुत कुछ सीखा जा सकता है और मुझे गर्व है मैं सीख भी रहा हूँ.

मीनाक्षी said...

बालकिशन जी आप सच कहते हैं. हर रचना में गहरा दर्शन छिपा है.हर रचना एक नया अनुभव दे जाती है.

अस्तित्व said...

बालकिशन जी एवम मीनाक्षी जी आपने दुरुस्त फरमाया। अनुभव की द्रिष्टि अपार होती है और यदि ज्ञान , विशलेषण और अनुभव का मिलन हो तो रचना स्वंय में अति उत्तम होगी। मस्तिष्क मे उठ्ते सवाल और दिल में उभरती भावनाये ही रचना को एक विशेष रुप में प्रस्तुत कर देते है। विमला जी की रचनाये इसका उदाहरण है।

बोधिसत्व said...

माता जी
प्रणाम
बीच में टीप नही पाया था पर आप को पढ़ता रहा हूँ.....आपका और आपकी कविताओं का भक्त हूँ। काश इतना सहज कहन हमें भी मिल पाता।