Monday 12 November, 2007

पीड़ा तेरे रूप अनेक

कौन बताये क्या है भेद
पीड़ा तेरे रूप अनेक
पहले पता खोजती फिरती
फिर है मिलती निमित्त विशेष
हाथ पकड़ करती आलिंगन
बनती स्वयं का ही प्रतिवेष
पीड़ा तेरे रूप अनेक

पहले तो करती हो स्वागत
बढ़ कर फिर करती हो अभिषेक
पीड़ा तेरे रूप अनेक

पहली लगती हो रोमांचक
फिर हो जाती हो अभिप्रेत
पहले अनदेखी अनजानी
चहुँदिशि अब तुम ही सर्वेश
पीड़ा तेरे रूप अनेक

वाष्प मेघ जल, वाष्प मेघ जल
अद्भुत विश्व रचयिता एक
यह कैसा अनिकेत निकेतन
दृष्टि एक और दृश्य अनेक
पीड़ा तेरे रूप अनेक

सिन्धु सिमिट कर बिन्दु
पलक में सुन्दर है मुक्तेश
प्रति पद घात बिलखती फिरती
अब सुन्दर मूरत सुविशेष
जाग्रत स्वप्न देखती पलकें
परिचित परिचय में क्या भेद
पीड़ा तेरे रूप अनेक

-२१.१०.९७

1 comment:

मीनाक्षी said...

चहुँदिशि अब तुम ही सर्वेश
पीड़ा तेरे रूप अनेक
---- दिल मे गहरे तक उतर जाने वाली पीड़ा के सच मे कई रूप हैं. काश कि अनजान चितेरे से साक्षात्कार हो जाए और मै भी अपनी पीड़ा भूल सकूँ....