कौन बताये क्या है भेद
पीड़ा तेरे रूप अनेक
पहले पता खोजती फिरती
फिर है मिलती निमित्त विशेष
हाथ पकड़ करती आलिंगन
बनती स्वयं का ही प्रतिवेष
पीड़ा तेरे रूप अनेक
पहले तो करती हो स्वागत
बढ़ कर फिर करती हो अभिषेक
पीड़ा तेरे रूप अनेक
पहली लगती हो रोमांचक
फिर हो जाती हो अभिप्रेत
पहले अनदेखी अनजानी
चहुँदिशि अब तुम ही सर्वेश
पीड़ा तेरे रूप अनेक
वाष्प मेघ जल, वाष्प मेघ जल
अद्भुत विश्व रचयिता एक
यह कैसा अनिकेत निकेतन
दृष्टि एक और दृश्य अनेक
पीड़ा तेरे रूप अनेक
सिन्धु सिमिट कर बिन्दु
पलक में सुन्दर है मुक्तेश
प्रति पद घात बिलखती फिरती
अब सुन्दर मूरत सुविशेष
जाग्रत स्वप्न देखती पलकें
परिचित परिचय में क्या भेद
पीड़ा तेरे रूप अनेक
-२१.१०.९७
Monday, 12 November 2007
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1 comment:
चहुँदिशि अब तुम ही सर्वेश
पीड़ा तेरे रूप अनेक
---- दिल मे गहरे तक उतर जाने वाली पीड़ा के सच मे कई रूप हैं. काश कि अनजान चितेरे से साक्षात्कार हो जाए और मै भी अपनी पीड़ा भूल सकूँ....
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