Thursday, 22 November 2007

किसका बढ़ कर स्वागत करती?

उतरूँ तो मैं तल में डूबूँ
ऊर्ध्व मुख हो शिखर चूम लूँ
क्षण क्षण मैं न्योछावर होती
पल पल अरि का तर्पण करती
प्रतिक्षण रूप बदलती रहती
बिना मंच के अभिनय करती
नव नूतन नर्तन नित करती
सूत्रधार तेरी गति भरती
सागर की अनगिन लहरों में
चरण चिह्न मैं ढूँढा करती
किस से बढ़ कर परिचय करती?
किसका बढ़ कर स्वागत करती?

4 comments:

मीनाक्षी said...

उधर माया का रूप अद्भुत,
इधर आपका रहस्यवाद
अनुपम !!

बालकिशन said...

सच. अनुपम, अतुलनीय, अद्भुत. कवितायें है आपकी.

परमजीत सिहँ बाली said...

एक बेहतरीन सुन्दर साहित्यक रचना पढ्नें को मिली।बधाई स्वीकारें।

ghughutibasuti said...

इतनी सुन्दर भाषा है और ऐसे भाव हैं कि मेरा टिप्पणी करना धृष्टता होगी ।
घुघूती बासूती