मत सुन लेना क्या कहती हूँ।
नीरव स्वर छल-छल बहती हूँ॥
विस्तृत है आकाश तुम्हारा।
बिन पंखों के ही उड़ती हूँ।।
अतल सिंधु सी गोद तुम्हारी।
बिन नौका के ही तिरती हूँ॥
मैं इच्छा साकार तुम्हारी।
बिन इच्छा के ही रहती हूँ।।
मन्दिर है बेजोड़ तुम्हारा।
क्षण-क्षण क्यों टूटा करती हूँ।।
कदम-कदम पर साथ तुम्हारा।
जाने क्यों ढूँढा करती हूँ॥
प्रवेश द्वार है कहाँ तुम्हारा।
मिलना है चलती रहती हूँ॥
-१९.१०.९१
Tuesday 30 October, 2007
Sunday 28 October, 2007
जीवन मैंने देखा जैसा
जगत मंच पर उत्सव जैसा
भाव-सिंधु भव-सागर जैसा
जीवन मैंने देखा जैसा
प्रभु की दुर्लभ इच्छा जैसा
तीरथ की पगडण्डी जैसा
फेरे जैसे धरती जैसा
भगीरथ की गंगा जैसा
पूर्ण से पूर्ण निकलने जैसा
बंद मुट्ठी में सिकता जैसा
कुछ खोकर फिर पाने जैसा
एक अथक प्रतीक्षा जैसा
सात सुरों के सरगम जैसा
आरोहण-अवरोहण जैसा
पूजा और अर्चना जैसा
प्रभु मंदिर में दीपक जैसा
श्री गिरधर की गीता जैसा
जीवन एक साधना जैसा
जीवन मैंने देखा जैसा
-२६.१०.२००७
भाव-सिंधु भव-सागर जैसा
जीवन मैंने देखा जैसा
प्रभु की दुर्लभ इच्छा जैसा
तीरथ की पगडण्डी जैसा
फेरे जैसे धरती जैसा
भगीरथ की गंगा जैसा
पूर्ण से पूर्ण निकलने जैसा
बंद मुट्ठी में सिकता जैसा
कुछ खोकर फिर पाने जैसा
एक अथक प्रतीक्षा जैसा
सात सुरों के सरगम जैसा
आरोहण-अवरोहण जैसा
पूजा और अर्चना जैसा
प्रभु मंदिर में दीपक जैसा
श्री गिरधर की गीता जैसा
जीवन एक साधना जैसा
जीवन मैंने देखा जैसा
-२६.१०.२००७
Friday 26 October, 2007
यह कौन? यह कौन?
यह कौन? यह कौन?
साधना कर रहा बैठा?
रिद्धि-सिद्धि कर रही परिक्रमा
मुक्ति पड़ी चरणों में
यह कौन? यह कौन?
पवन डुलाता चँवर
सुमन ढलते हैं भू पर
धरा हो गई धन्य
दिग दिगन्त हैं मौन
विभोरता विहँस रही है
अनहद से भरपूर
यह कौन? यह कौन?
-२१ अक्तूबर २००७
साधना कर रहा बैठा?
रिद्धि-सिद्धि कर रही परिक्रमा
मुक्ति पड़ी चरणों में
यह कौन? यह कौन?
पवन डुलाता चँवर
सुमन ढलते हैं भू पर
धरा हो गई धन्य
दिग दिगन्त हैं मौन
विभोरता विहँस रही है
अनहद से भरपूर
यह कौन? यह कौन?
-२१ अक्तूबर २००७
Tuesday 23 October, 2007
धूलि कण हूँ मैं यथावत
Monday 22 October, 2007
मैं धन्य हो गई
मेरी कविता से मेरा परिचय जान लिया,
मैंने बिन देखे ही स्वजनों को पहिचान लिया।
वास्तव में भाव और वाणी ही वास्तविक परिचय हैं जो हमें एक सूत्र में बाँधते हैं।
मैं धन्य हो गई जो कविता प्रिय लगी। मैं सबको आशीर्वाद, शुभकामनाओं के साथ धन्यवाद करती हूँ। वैसे इस उत्सव में मेरा प्रवेश कराने का सारा श्रेय मेरे बेटे अभय तिवारी को है। उसने जैसे प्रभु की पूजा की हो। मैं धन्य हो गई.. क्योंकि..
कैसे लिख जाती है कविता,
भाव कहाँ से आते हैं ?
हाथ ये कैसे लिख देते हैं,
शक्ति कहाँ से पाते हैं ?
मैंने बिन देखे ही स्वजनों को पहिचान लिया।
वास्तव में भाव और वाणी ही वास्तविक परिचय हैं जो हमें एक सूत्र में बाँधते हैं।
मैं धन्य हो गई जो कविता प्रिय लगी। मैं सबको आशीर्वाद, शुभकामनाओं के साथ धन्यवाद करती हूँ। वैसे इस उत्सव में मेरा प्रवेश कराने का सारा श्रेय मेरे बेटे अभय तिवारी को है। उसने जैसे प्रभु की पूजा की हो। मैं धन्य हो गई.. क्योंकि..
कैसे लिख जाती है कविता,
भाव कहाँ से आते हैं ?
हाथ ये कैसे लिख देते हैं,
शक्ति कहाँ से पाते हैं ?
Saturday 20 October, 2007
कितने रूपों में आते हो
कितने रूपों में आते हो,
कब-कब मैं पहिचान सकी हूँ ?
कभी मन्द मुस्कान बने हो,
कभी अश्रु बन ढलक गए हो,
मदिर गन्ध बन छा जाते हो,
कब-कब तुम्हे निहार सकी हूँ ?
कब-कब मैं पहिचान सकी हूँ ?
-अक्तूबर ९३
कब-कब मैं पहिचान सकी हूँ ?
कभी मन्द मुस्कान बने हो,
कभी अश्रु बन ढलक गए हो,
मदिर गन्ध बन छा जाते हो,
कब-कब तुम्हे निहार सकी हूँ ?
कब-कब मैं पहिचान सकी हूँ ?
-अक्तूबर ९३
जाऊँ जहाँ वही मिल जाये
जब मै चाहूँ पंख पसारूँ
जब मै चाहूँ पंख पसारूँ
मुझको तुम उड़ने देना
वापस लौट सकूँ जब चाहूँ
द्वार खुला रहने देना
कैनवस खुला हो मन का
मुझे तूलिका तुम देना
कैसे रंग भरूँ उत्सव का
मुझे बताते तुम रहना
छू लेते हो छप जाती हूँ
क्या कहते हो सुन लेती हूँ
-9 अक्तूबर 2001
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