यह कौन? यह कौन?
साधना कर रहा बैठा?
रिद्धि-सिद्धि कर रही परिक्रमा
मुक्ति पड़ी चरणों में
यह कौन? यह कौन?
पवन डुलाता चँवर
सुमन ढलते हैं भू पर
धरा हो गई धन्य
दिग दिगन्त हैं मौन
विभोरता विहँस रही है
अनहद से भरपूर
यह कौन? यह कौन?
-२१ अक्तूबर २००७
Friday, 26 October 2007
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8 comments:
रहस्यवाद.??
कामायनी की ये लाइन याद आ गयी.
कौन तुम, संसृति जलनिधि तीर तरंगों से फेंकी मणि एक,
कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक
मधुर विश्रान्त और एकांत जगत का सुलझा हुआ रहस्य,
एक करूणामय सुंदर मौन औैर चंचल मन का आलस्य
स्मृति से लिखी है गलती हो तो क्षमा.
इस कौन को अन्दर खोजता हूं। शायद मिल जाये।
कोई नहीं, अपने को न देख पाने की विवशता है।
आपको पढ़कर महादेवी वर्माजी की कविताएं याद हो आती हैं। गहन अनुभूति एक नये संसार की
ओर ले जाती हुई। ग्रेट।
सुमन ढलते हैं भू पर
धरा हो गई धन्य
--- बहुत सुन्दर ! आपको पढ़ कर रहस्यवाद और छायावाद की रचनाएँ याद आने लगती हैं.
माता जी
डूब गया हूँ इस रहस्य में.
यह कौन? यह कौन?
साधना कर रहा बैठा?
बहुत आनन्द आया.
आदरणीय विमला जी,
सादर नमस्कार -
आपकी कविता बहुत पसँद आईँ -
इसी तरह दूसरी भी सुनाइयेगा
स्नेह,
-- लावण्या
माता जी आपको पढ़ना एक अलग समय में पहुँच जाने की तरह है.....अभय भाई छापते रहें.....बहुत अच्छी लग रही हैं मां की कविताएँ।
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