मत सुन लेना क्या कहती हूँ।
नीरव स्वर छल-छल बहती हूँ॥
विस्तृत है आकाश तुम्हारा।
बिन पंखों के ही उड़ती हूँ।।
अतल सिंधु सी गोद तुम्हारी।
बिन नौका के ही तिरती हूँ॥
मैं इच्छा साकार तुम्हारी।
बिन इच्छा के ही रहती हूँ।।
मन्दिर है बेजोड़ तुम्हारा।
क्षण-क्षण क्यों टूटा करती हूँ।।
कदम-कदम पर साथ तुम्हारा।
जाने क्यों ढूँढा करती हूँ॥
प्रवेश द्वार है कहाँ तुम्हारा।
मिलना है चलती रहती हूँ॥
-१९.१०.९१
Tuesday, 30 October 2007
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9 comments:
मां जी बहुत अच्छी भावनाएं और बहुत अच्छी अभिव्यक्ति. जब जनमत में हमने आपकी कविता छापी थी तो वो यही समय था शायद. आपने उसी दौर की एक और कविता यहां रखी है, क्या इधर कुछ नया नहीं लिख रही हैं? आपके कुशल स्वास्थ्य की कामनाएं.
बेहद सटीक भावाभिव्यक्ति .......माता जी की सब कविताएँ ब्लॉग पर होनी ही चाहिए भाई अभय। आप सचमें लायक पुत्र है....।
पहली बार पढ़ा आपको. आनंद महसूस हो रहा है. बहुत ही आनंद महसूस हो रहा है. शब्दों मे व्यक्त नही कर पा रहा हूँ.
एक बार पढी न मन भरा न ही समझ आई ।
इतना गहरा गोता लगाना अभी सीख ही नहीं पाया था । अब लगता है कि उस गहराई पर एक अदभुत संसार होगा ।
आपकी कविता ने मुझे विभोर कर दिया।
"सन्नाटा निरन्तर आकर्षित करता था पर वहाँ रहने की इच्छा न थी, पर धीरे धीरे चल कर वे क्षण आ ही गए। मैं स्वागत को राजी न थी मगर भयभीत भी न थी। मुझे घेरकर वह गुनगुनाने लगा मैं चकित रह गई ठगी ठगी."
इसी भाव के साथ आपकी रचनाएँ एक अजीब तरह का सुकून देती हैं.
बेहतरीन भाव, बेहतरीन अभिव्यक्ति
बहुत ही उम्दा और गहन रचना.
आपका लेखन बहुत गहन चिन्तन तो रखता ही है परन्तु उसमें एक मधुर स्वर भी सुनाई देता है ।
घुघूती बासूती
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