अपने बारे में सोचने का कभी मौका नहीं मिला; जैसे कोई मेरा पीछा कर रहा है और मैं भागती जा रही हूँ। पर जब सोचा तो आश्चर्य से भर गई; ये जगत एक तीर्थ, एक उपवन, एक पाठशाला लगा। कुछ अपूर्व जानने की अदम्य इच्छा सदा से है। हर वस्तु मुझे विभोर कर देती है इसीलिए मेरे पति ने मुझे ‘विभोर’ उपनाम दिया।
मेरी कविता ही मेरे मन के भेद खोलती है। मैं जो कहूँगी वह अभी की बात है, अगले क्षण मैं क्या सोचूँगी, मैं खुद नहीं जानती। नहीं तो जीवन बिलकुल बेकार हो जाता- व्यर्थ।
सन्नाटा निरन्तर आकर्षित करता था पर वहाँ रहने की इच्छा न थी, पर धीरे धीरे चल कर वे क्षण आ ही गए। मैं स्वागत को राजी न थी मगर भयभीत भी न थी। मुझे घेरकर वह गुनगुनाने लगा मैं चकित रह गई ठगी ठगी.. फिर उस अनुभूति को शब्द देना मेरा आनन्द बन गया। जहाँ मैं पीड़ा भूल गई और साक्षात्कार हो गया उस अनजान चितेरे का।
2 comments:
आपकी कविताएँ पढ़ने पर हर बार कुछ नये भाव मिलते हैं और मिलती है खुशी ।
घुघूती बासूती
बारमबार बखान......
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