जिधर भी देखती हूँ प्रभु
तुम ही दिखाई देते हो
तुम्हारी दृष्टि मुझ पर पड़ती है
तुम तत्काल वरदान दे देते हो
दुर्भाग्य मेरे पीछे चल पड़ता है
कब वरदान की अवधि पूरी हो
दुर्भाग्य मेरा आँचल पकड़ ले
मैंने भी तो स्वभाव बना लिया
दोनों का साथ निभाने का
तुम्हारा सा सयानापन मुझे भी भा गया है
मैं किनारे खड़ी हूँ
दोनों बारी-बारी से मेरा आँचल पकड़ लेते हैं
मौसम की तरह मुझ पर से गुज़रते हैं
प्रभु तुम कब आँचल पकड़ोगे?
Saturday 22 December, 2007
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6 comments:
प्रणाम । अद्भुत ।
इन दोनो के वरदान से जीवन इन्द्रधनुषी बीतता है!
बहुत सुन्दर प्रार्थना!!
बहुत भावपूर्ण रचना. शब्दों का खूबसूरत प्रयोग. वाह. बधाई.
नीरज
मैंने भी तो स्वभाव बना लिया
दोनों का साथ निभाने का
---- बहुत सुन्दर... दोनों का साथ निभाने की कला जीवन को अनोखा रूप देती है.
bahut badiya prarthana
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