Tuesday 23 October, 2007

धूलि कण हूँ मैं यथावत


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

धूलि कण हूँ मैं यथावत
किन्तु तेरा अंश हूँ

मुग्ध मैं हूँ यथावत
किन्तु कितनी दूर हूँ

अभिभूत मैं हूँ अज्ञ बस
किन्तु मैं परिपूर्ण हूँ

तुम जहाँ पर हो खड़े
प्रभामण्डल चक्र में

बाँध दूँ किस छन्द में
गीत की किस पंक्ति में

-अक्तूबर ९, १९९३

12 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

ओह, 'यह तो पूर्ण में से पूर्ण निकालो तो पूर्ण बचता है' जैसी उपनषदिक उक्ति सा सत्य का उद्घघाटन हो गया। बहुत अच्छा लगा।

ALOK PURANIK said...

संक्षेप में पूरी फिलोसोफी है जी यह तो।

Sajeev said...

bahut sundar

मीनाक्षी said...

धूलि कण हूँ मै यथावत
किंतु तेरा अंश हूँ....
रहस्यवाद का दर्शन होता है आपकी रचना मे.

काकेश said...

बहुत सुन्दर भाव. एक दर्शन एक रहस्य छिपा है इसमें.

Pratyaksha said...

बहुत सुंदर !

बोधिसत्व said...

बहुत आनन्द दायक....कहें तो मनन करने के लिए प्रेरित करनेवाली पंक्तियाँ....

Yunus Khan said...

अदभुत है ।
महादेवी जी की झलक दिखी इसमें ।

संजय बेंगाणी said...

सुन्दर

ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर और सुन्दर दर्शन लिए हुए ।
घुघूती बासूती

Udan Tashtari said...

सुन्दर दर्शन.

Sanjay Gulati Musafir said...

तुम जहाँ पर हो खड़े
प्रभामण्डल चक्र में

बाँध दूँ किस छन्द में
गीत की किस पंक्ति में

"बस इतना ही कह सकता हूँ"
सजय गुलाटी मुसाफिर