skip to main |
skip to sidebar
धूलि कण हूँ मैं यथावत
धूलि कण हूँ मैं यथावत
किन्तु तेरा अंश हूँ
मुग्ध मैं हूँ यथावत
किन्तु कितनी दूर हूँ
अभिभूत मैं हूँ अज्ञ बस
किन्तु मैं परिपूर्ण हूँ
तुम जहाँ पर हो खड़े
प्रभामण्डल चक्र में
बाँध दूँ किस छन्द में
गीत की किस पंक्ति में
-अक्तूबर ९, १९९३
12 comments:
ओह, 'यह तो पूर्ण में से पूर्ण निकालो तो पूर्ण बचता है' जैसी उपनषदिक उक्ति सा सत्य का उद्घघाटन हो गया। बहुत अच्छा लगा।
संक्षेप में पूरी फिलोसोफी है जी यह तो।
bahut sundar
धूलि कण हूँ मै यथावत
किंतु तेरा अंश हूँ....
रहस्यवाद का दर्शन होता है आपकी रचना मे.
बहुत सुन्दर भाव. एक दर्शन एक रहस्य छिपा है इसमें.
बहुत सुंदर !
बहुत आनन्द दायक....कहें तो मनन करने के लिए प्रेरित करनेवाली पंक्तियाँ....
अदभुत है ।
महादेवी जी की झलक दिखी इसमें ।
सुन्दर
बहुत सुन्दर और सुन्दर दर्शन लिए हुए ।
घुघूती बासूती
सुन्दर दर्शन.
तुम जहाँ पर हो खड़े
प्रभामण्डल चक्र में
बाँध दूँ किस छन्द में
गीत की किस पंक्ति में
"बस इतना ही कह सकता हूँ"
सजय गुलाटी मुसाफिर
Post a Comment