Saturday 20 October, 2007

कितने रूपों में आते हो

कितने रूपों में आते हो,
कब-कब मैं पहिचान सकी हूँ ?
कभी मन्द मुस्कान बने हो,
कभी अश्रु बन ढलक गए हो,
मदिर गन्ध बन छा जाते हो,
कब-कब तुम्हे निहार सकी हूँ ?

कब-कब मैं पहिचान सकी हूँ ?

-अक्तूबर ९३

17 comments:

मैथिली गुप्त said...

हिन्दी ब्लाग्स की अदभुत दुनियां में आपका स्वागत है

Anonymous said...

बहुत सुन्दर!

काकेश said...

स्वागतम..सुस्वागतम.

ज्योति कलश बन छा जाने को,
ढलक उठा जो प्याला मन का
करते हैं अब आज उसी का
स्वागत इस निर्मल वन में.

Unknown said...

आप शायद रूह शब्दों में उतारना जानती है...

anuradha srivastav said...

आपको पढ कर अच्छा लगा। हार्दिक स्वागत।

azdak said...

चाचीजी, लगे रहिए! जोश-ए-जीवन, ज़ि‍न्‍दाबाद!

Anonymous said...

माई को प्रणाम ।

सुजाता said...

स्वागत है आपका वैविध्य भरी इस अनोखी दुनिया मे जिसका अनूठापन हम-आप सरीखे लघु मानवो से ही है ।

Atul Chauhan said...

वाह! विमला जी जीवंत चित्रण बडा रोचक बना है,"कितने रूपों में आते हो"। बाकी पाठ्क के विवेक पर ………………ब्लागरों की दुनिया में स्वागत है।

Sanjeet Tripathi said...

प्रणाम आदरणीया,
स्वागत आपका!

सीखना पड़ेगा बहुत कुछ आपके अनुभवों से, आपके शब्दों से।

Rachna Singh said...

प्रणाम स्वागत

36solutions said...

बहुत गहरे भाव चंद शव्‍दों में ।
धन्‍यवाद ।
प्रणाम सहित ।

'आरंभ' छत्‍तीसगढ का स्‍पंदन

Udan Tashtari said...

अच्छा लगा आपका आशीष इस चिट्ठाजगत को प्राप्त हुआ. हम सब अनुग्रहित हुए. अपनी बातों से मार्गदर्शन करती रहें.

सादर
समीर लाल

बोधिसत्व said...

मैं तुझे सलाम.....अब तो लगातार पढ़ पाएँगे.....भाव पूर्ण कविताएँ।

आभा said...

ऐसी भाव भरी कविताएँ सालों बाद पढ़ रही हूँ....बहुत अच्छा लग रहा है।

Farid Khan said...

बहुत अच्छा लगा आपकी कविताएँ पढ कर। इसके पहले भी निर्मल आनन्द पर एक कविता पढी थी, वह अभी तक याद है।

ePandit said...

विमला जी स्वागत है हिन्दी चिट्ठाकारी की दुनिया में। आशा है कविताओं के रुप में आपका स्नेहाशीष आगे भी मिलता रहेगा।