Saturday 20 October, 2007

जाऊँ जहाँ वही मिल जाये

जाऊँ जहाँ वही मिल जाये,
देखूँ जिधर वही दिख जाये,
जो कुछ सुनूँ नाम हो उसका।
कर स्पर्श करे बस उसका,
चहुँ दिशि से मुझ पर छा जाये।
खोज खोज कर हारी हूँ मैं,
मुझे खोजता वह मिल जाये।
चल दूँ तो हो नूतन सर्जन,
बैठूँ तो मंदिर बन जाये।
आशा डोर कभी ना टूटे,
शाश्वत सदा नित्य हो जाये।

-७ नवम्बर २००३

3 comments:

Anonymous said...

चल दूँ तो हो नूतन सर्जन,
बैठूँ तो मंदिर बन जाये।


अद्भुत!

Udan Tashtari said...

रचना ने एक गहराई में उतार दिया.

Sanjay Gulati Musafir said...

कुछ रचनाएँ 1993 की, कुछ 2007 की, यह 2003 की

इन सब में विश्वास नहीं बदला, हाँ जीवन दर्शन में बदलाव स्पष्ट दिखता है ।

आपकी रचनाएँ पढकर केवल एक संतोष मन में जागता है कि अगर ईश्वर ने अपने प्रति प्रेम उत्त्पन किया है तो (आप ही के शब्दों) आरोह-अवरोह भरी पगडंडियाँ उसने खुद तक पहुँचने के लिए ही दी हैं । "मुसाफिर" को तो बस चलते रहना है ।