जब मै चाहूँ पंख पसारूँ
मुझको तुम उड़ने देना
वापस लौट सकूँ जब चाहूँ
द्वार खुला रहने देना
कैनवस खुला हो मन का
मुझे तूलिका तुम देना
कैसे रंग भरूँ उत्सव का
मुझे बताते तुम रहना
छू लेते हो छप जाती हूँ
क्या कहते हो सुन लेती हूँ
-9 अक्तूबर 2001
मन की चपल गति के साथ रूप बदलते भाव चित्र.. मेरी कविता
7 comments:
यह वाली तो पहले भी पढ़ चुका हूं। फिर से पढ़ना अच्छा लगा!
बेहतरीन, एक नयी दुनिया की उड़ान।
माताजी को चरण स्पर्श इस अनुरोध के साथ
कि हम जैसे बालकों को भी आशीर्वाद दें कि कुछ ठीकठाक सा लिख लें।
विभोर जी
""मेरी कविता ही मेरे मन के भेद खोलती है। मैं जो कहूँगी वह अभी की बात है, अगले क्षण मैं क्या सोचूँगी, मैं खुद नहीं जानती। "
आपका परिचय पढ़्कर हम भी भाव विभोर हो गए. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.. शायद मेरे ही मन की बात आपने कह दी ..
पूर्व में भी इसे पढ़ा था. यह एक अद्भुत रचना है जो मुझे अति प्रिय है और आपके आशीर्वाद के तौर पर मैने इसे अपने कम्प्यूटर में काफी समय से सहेज रखा है.
सुन्दर अभिव्यक्ति है।
अभय जी, इस चिट्ठे को बनाकर आपने जो माता जी की कविताएं प्रकाशित करने का कार्य किया है, वह सराहनीय है और यह पाठकों को भी भाव-विभोर करेंगी ऐसी आशा है।
heart touching
namaste dadi, maine apki sari kavitayein padhi aj..
bahut acha anubhaw hua .
aur bahut prerna bhi mili, jivan ko ujjwal roop mein dekhne ki...
Post a Comment