Saturday 12 January, 2008

मैंने सपना देखा!

तुम आये सपने में मेरे
सुर-सरिता दिखलाते मुझको
दो फाक किवाड़े के
सुत गोद लिये
ठहरे पल भर फिर लुप्त हुए

मैं चकित खड़ी की खड़ी रही
क्या कहते हो बस सोच रही
एक मोड़ मिला
पीताम्बर धारे बैठे हो
प्रिय अभय इसे कल लाया था
मुसकाते कुछ कहते हो

ये मुग्ध भाव लख प्रभु तेरा
मै हरी-भरी हो जाती हूँ
सुर-सरिता अंतर में मेरे
अवगहन वहीं मैं करती हूँ
देखो कब फिर मिलती हूँ

3 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर रचना है।बधाई!

ये मुग्ध भाव लख प्रभु तेरा
मै हरी-भरी हो जाती हूँ
सुर-सरिता अंतर में मेरे
अवगहन वहीं मैं करती हूँ
देखो कब फिर मिलती हूँ

गरिमा said...

so sweet,

सपने मे तेरा रूप जो देखा
मै "मै" कहा रह सकी
तुझको खुद मे देख लिया
बचा क्या कुछ कहने को

रंजना said...

क्या कहूँ...

सौभाग्य मेरा कि विलम्ब से ही सही पर इस ब्लॉग तक आने का मार्ग मिला...