Friday, 1 February 2008

पद चिह्नों पर नहीं चलूँगी

पद-चिह्नों पर नहीं चलूँगी
यह आदेश नहीं मानूँगी
चरण-चिह्न हो अलग हमारे
इतना ही अनुरोध करूँगी

पद-चिह्न के साथ चलूँगी
उनके चारों ओर चलूँगी
पूजा भी उनकी कर दूँगी
आदर-मान सदा मैं दूँगी
पर इन पर मैं चलूँ प्रिये
इतना तो कर नहीं सकूँगी

तुम भी इसी जगत के वासी
मेरा भी अस्तित्व अलग है
अपने-अपने चिह्न के संग
हम दोनों एक साथ चलेंगे
तुम अपनी पहचान बनाओ
मैं अपनी धुन में रम लूँगी

पूज्य चरण पर चरण टिका कर
क्यों अपमान करूँ मैं उनका
मैं इनका अनुगमन करूँगी
उनसे कुछ शिक्षा भी लूँगी

पद-चिह्नो पर चलकर तुम भी
कोई राह नहीं पाओगे
चिह्न बनाकर आगे बढ़ते
कोई राह ढूँढ पाओगे

राह हमारी एक रहेगी
लक्ष्य हमारा एक रहेगा
चिह्न बनाते आगे बढ़ते
हम दोनों एक साथ चलेंगे

क्षितिज पार एक साथ करेंगे
चरण-चिह्न पर अलग रहेंगे

Saturday, 12 January 2008

मैंने सपना देखा!

तुम आये सपने में मेरे
सुर-सरिता दिखलाते मुझको
दो फाक किवाड़े के
सुत गोद लिये
ठहरे पल भर फिर लुप्त हुए

मैं चकित खड़ी की खड़ी रही
क्या कहते हो बस सोच रही
एक मोड़ मिला
पीताम्बर धारे बैठे हो
प्रिय अभय इसे कल लाया था
मुसकाते कुछ कहते हो

ये मुग्ध भाव लख प्रभु तेरा
मै हरी-भरी हो जाती हूँ
सुर-सरिता अंतर में मेरे
अवगहन वहीं मैं करती हूँ
देखो कब फिर मिलती हूँ

Tuesday, 8 January 2008

नौका

इस तट पर क्यों नौका बाँधी
कब तक यहाँ ठहरना बाकी
नाम पता कोई यदि पूछे
परिचय अपना क्या दूँ साथी
मुझे बता दो आज सखे तुम
किस की नौका , कौन है साथी

Sunday, 6 January 2008

कौन देश से आए पथिक तुम

कानपुर के मेरे घर मे इन्टरनेट लग गया है और यह पहली कविता है जो मेरे घर से छापी जा रही है। ये काम भी मेरा बेटा अभय ही कर रहा है.. आप लोगों की प्रतिक्रियाएं भी मैं दूसरों के द्वारा सुनती हूँ। अपनी कमज़ोर होती आँखों के चलते नेट पर पढ़ना मेरे लिए आसान नहीं है। मीरा बाई की पंक्तियाँ मुझे याद आती हैं जो पहनावे सो ही पहनूँ जो देवे सो खाऊँ.. उसी मनोदशा में मैं हूँ।

मेरे पाठक ही मेरे आत्मीय हैं। बिन देखे ही जैसे मैं सबसे परिचित हूँ- किसी रूप और नाम की दरकार नहीं। जैसे एक ही भाव नदी में सब तैर रहे हैं अपनी-अपनी तरह से चेतना से प्रदीप्त प्रकाशमय और जागृत। मेरा उन सब को धन्यवाद, आशीर्वाद और स्नेह!

एक पुरानी कविता यहाँ प्रस्तुत है..

कौन देश से आए पथिक तुम
क्या है नाम तुम्हारा

किसकी तुम अद्भुत आशा हो
क्या है लक्ष्य तुम्हारा
मिलने का उद्देश्य तुम्हारा
मैंने जान न पाया
क्या है नाम तुम्हारा

युग युग की लालसा नयन में
वाणी में है याचना
चलते हो डगमग कदमों से
भूल गए हो रास्ता

जिसे ढूँढते मन में छिपा है
दीपक क्यों नहीं बारता
जहाँ खड़े हो लक्ष्य वही है
दृष्टि क्यों नहीं खोलता
क्या है नाम तुम्हारा

-३०-४-९३

Saturday, 22 December 2007

प्रभु तुम कब आँचल पकड़ोगे?

जिधर भी देखती हूँ प्रभु
तुम ही दिखाई देते हो
तुम्हारी दृष्टि मुझ पर पड़ती है
तुम तत्काल वरदान दे देते हो
दुर्भाग्य मेरे पीछे चल पड़ता है
कब वरदान की अवधि पूरी हो
दुर्भाग्य मेरा आँचल पकड़ ले

मैंने भी तो स्वभाव बना लिया
दोनों का साथ निभाने का
तुम्हारा सा सयानापन मुझे भी भा गया है

मैं किनारे खड़ी हूँ
दोनों बारी-बारी से मेरा आँचल पकड़ लेते हैं
मौसम की तरह मुझ पर से गुज़रते हैं

प्रभु तुम कब आँचल पकड़ोगे?

Wednesday, 5 December 2007

बिखर गई है प्रीत

सब रंग उत्सुक
मूक खड़े हैं
नहीं आए मन मीत
सब रंग मिल के एक वरण भये
शब्द बने संगीत
कौन बुलाए किसको ढूँढू
बिखर गई है प्रीत

Saturday, 1 December 2007

कैसे मैं आँगन में आऊँ

द्वारे पर है भीड़ तुम्हारे
कैसे मैं आँगन में आऊँ
माँ मेरा भी हृदय विकल है
कैसे तेरा दर्शन पाऊँ
हाथों में है क्षत्र नारियल
चक्षु बन गए विस्तृत आँगन
अंतर में है गुफा तुम्हारी
कैसे माँ मैं दीप जलाऊँ
कैसे मैं आँगन में आऊँ
एक शिखर से वहीं विसर्जित
चरणों में मैं शीश नवाऊँ
खोज रही पग कहाँ पखारूँ
किधर शिला है जहाँ बैठकर
कितने युग तक राह निहारूँ
मन को कैसे धीर बधाऊँ
कैसे मैं आँगन में आऊँ
ज्ञान बीज किस भूमि में बो दूँ
फूल खिलें मैं पथ में बिछाऊँ
पथ में अगणित दीप जलाऊँ
कितने युग तक राह निहारूँ
कैसे मैं आँगन में आऊँ